• संघवाद की हिमायत में फैसला

    नरेंद्र मोदी के राज में राज्यपाल के पद को जिस तरह से विपक्ष-शासित राज्यों में सत्ताधारी संघ-भाजपा जोड़ी की क्षुद्र राजनीति का हथियार बनाया गया है

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    - राजेंद्र शर्मा

    सुप्रीम कोर्ट के फैसले में स्पष्ट शब्दों में और बलपूर्वक इस बात को कहा गया है कि राज्यपाल की भूमिका तो संविधान के रखवाले की है यानी उसका काम संघीय व्यवस्था का सुचारु रूप से काम करना सुनिश्चित करने में मदद करना है। उसकी भूमिका किसी भी तरह से राजनीतिक खिलाड़ी की नहीं है और विपक्षी राजनीतिक खिलाड़ी की तो हर्गिज-हर्गिज नहीं है।

    नरेंद्र मोदी के राज में राज्यपाल के पद को जिस तरह से विपक्ष-शासित राज्यों में सत्ताधारी संघ-भाजपा जोड़ी की क्षुद्र राजनीति का हथियार बनाया गया है, उस पर यकायक किसी तरह से रोक लग जाएगी, यह मानना मुश्किल है। फिर भी तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु राज्यपाल आदि मामले में हाल ही में सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय खंडपीठ ने जो असाधारण फैसला सुनाया है, उसने मौजूदा निजाम में राज्यपालों की भूमिका के सवाल को एक बार फिर बहस के केंद्र में ला दिया है।न्यायाधीशगण जेबी पारदीवाला और आर माधवन के फैसले का महत्व सिर्फ इतना ही नहीं है कि पहली बार तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित ऐसे दस विधेयकों को राज्यपाल की मंजूरी के बिना ही पारित करार दे दिया गया है, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के अनुसार राज्य के राज्यपाल ने 'अवैध' तरीके से सालों से रोका हुआ था।

    राज्यपाल की यह नकारात्मक सक्रियता इस हद तक पहुंच गयी थी कि 2023 में जब सुप्रीम कोर्ट ने इसी विवाद में यह फैसला दिया था कि राज्यपाल, विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को अनिश्चित काल तक अपने पास रोक कर नहीं रख सकता है और उसके पास ऐसे किसी भी विधेयक को मंजूरी देेने के सिवा दो ही विकल्प थे, या तो विधेयक को नामंजूर कर के विधानसभा को लौटा दे या फिर परामर्श के लिए राष्ट्रपति को भेज दे। उस समय राज्यपाल ने बरसों से रोक कर रखे जा रहे विधेयकों को विधानसभा के दोबारा पारित कर के भेजने के बाद, उन पर मंजूरी देने के बजाए, कथित रूप से परामर्श के नाम पर राष्ट्रपति के पाले में डाल दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस समूचे धतकर्म को अवैध करार देते हुए, संबंधित दस विधायकों को राज्य विधानसभा द्वारा उनके दोबारा पारित कर लौटाए जाने की तारीख से ही, पारित घोषित कर दिया है।

    इस फैसले का असर यह भी है कि केरल की एलडीएफ सरकार ने भी ऐसे ही मामले में, अपने राज्य के राज्यपाल द्वारा लंबे अर्से से रोक कर रखे गए, विधानसभा द्वारा पारित हुए विधेयकों को, इसी प्रकार से पारित घोषित किए जाने की मांग की है। राज्यपालों की विधानसभा की कार्यवाही में रोड़े अटकाने की अनुचित हरकतों को कटघरे में खड़ा किए जाने की यह बात निकली है, तो दूर तक जाएगी। याद रहे कि उत्तर हो या दक्षिण या पूर्व, कोई भी विपक्ष-शासित राज्य नहीं है, जहां मोदी राज द्वारा बैठाए गए राज्यपालों ने इस तरह की असंवैधानिकता नहीं की है। तमिलनाडु और केरल ही नहीं, तेलंगाना, पंजाब, दिल्ली आदि की सरकारें भी, ऐसी ही शिकायतों के साथ सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर पहुंची थीं। इसे देखते हुए यह कहने में जरा भी अतिरंजना नहीं होगी कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला, राज्यपालों के ऐसी असंवैधानिकता करने के लिए जिम्मेदार, केंद्र सरकार के मुंह पर एक करारा तमाचा है।

    लेकिन, जैसे इस मामले में मोदी राज की इसी संलिप्तता का परोक्ष साक्ष्य पेश करते हुए, तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा उनकी हरकतों को गैर-कानूनी ठहराते हुए सुप्रीम भर्त्सना किए जाने के बावजूद, न सिर्फ राज्यपाल के पद से इस्तीफा देने से इंकार कर दिया है, वह तो राज्यपाल के पद की मर्यादाओं को मिट्टी में मिलाते हुए, हर रोज नये-नये विवाद खड़े करने में लगा हुआ है। ताजातरीन विवाद उसने मदुरै में एक सार्वजनिक शिक्षा संस्था के कार्यक्रम में छात्रों से ''जय श्रीराम'' के नारे लगवा कर किया है, जो एक संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के लिए सरासर असंवैधानिक आचरण है। बहरहाल, इन मामलों में केंद्र की संलिप्तता के प्रत्यक्ष साक्ष्य भी कम नहीं हैं। ऐसे ही एक साक्ष्य में केंद्र की ओर से इसके इशारे किए जा रहे हैं कि सरकार, सुप्रीम कोर्ट के उक्त फैसले के खिलाफ पुनरीक्षण याचिका दायर करने जा रही है।

    वास्तव में इस मामले में केंद्र सरकार को ही एक प्रकार से एक पक्ष बनाते हुए, देश के एडवोकेट जनरल ने इस मामले में तमिलनाडु के राज्यपाल की पैरवी की थी। तमिलनाडु के राज्यपाल के पक्ष में एडवोकेट जनरल द्वारा यह पूरी तरह से संविधानविरोधी और संघीय व्यवस्था विरोधी दलील दी गयी थी कि राज्यपाल के पास, विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूर करने, नामंजूर करने या राष्ट्रपति को भेजने के सिवा एक चौथा विकल्प भी होता है, जिसे आम लोगों की भाषा में पॉकेट वीटो कहा जाता है यानी विधेयक को लिया और जेब में डालकर भूल गए। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले में न सिर्फ यह स्पष्ट कर दिया गया है कि राज्यपाल को इस तरह के किसी भी वीटो का कोई अधिकार नहीं है, बल्कि यह भी साफ कर दिया गया है कि राज्यपाल को और यहां तक कि राष्ट्रपति को भी, ऐसे विधेयकों के मामले में इस समुचित समय सीमा के अंदर अपना फैसला देना होगा और यह समय सीमा एक महीने से लेकर तीन महीने तक की है। इस तरह, सुप्रीम कोर्ट ने अपनी तरफ से तो राज्यपाल द्वारा राज्य विधानसभा के निर्णय के रूप में, राज्य की जनता की इच्छा का रास्ता रोके जाने की इस बढ़ती प्रवृत्ति का रास्ता बंद ही कर दिया है।

    सुप्रीम कोर्ट के फैसले में स्पष्ट शब्दों में और बलपूर्वक इस बात को कहा गया है कि राज्यपाल की भूमिका तो संविधान के रखवाले की है यानी उसका काम संघीय व्यवस्था का सुचारु रूप से काम करना सुनिश्चित करने में मदद करना है। उसकी भूमिका किसी भी तरह से राजनीतिक खिलाड़ी की नहीं है और विपक्षी राजनीतिक खिलाड़ी की तो हर्गिज-हर्गिज नहीं है। कहने की जरूरत नहीं है कि मोदी राज में विपक्ष शासित राज्यों के राज्यपालों को, विपक्षी राजनीतिक खिलाड़ी की ठीक ऐसी ही भूमिका में घटा दिया गया है। अव्वल तो राज्यपालों की नियुक्ति ही इन अपेक्षाओं के आधार पर ही की जा रही है और अगर कोई कमी रह जाती है, तो केंद्र के निर्देशों से उन्हें संघ-निर्देशित रास्ते पर ले आया जाता है। बेशक, हमारे देश में संघीय व्यवस्था के संदर्भ में, राज्यपालों के पद का केंद्र की राजनीतिक इच्छा के हिसाब से दुरुपयोग किए जाने का इतिहास, मोदी राज से कहीं पुराना है। तरह-तरह के बहानों से निर्वाचित राज्य सरकारों को गिराने/हटाने के लिए राज्यपाल के पद का इतनी बार दुरुपयोग हुआ है कि न सिर्फ इस पद की भूमिका पर कई आयोगों/ कमेटियों द्वारा रोक-टोक करने वाली टिप्पणियां की गयी हैं तथा शर्तें लगायी गयी हैं, वास्तव में अनेक हलकों से इस पद की ही जरूरत पर भी सवाल उठते रहे हैं। इसके बावजूद, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है कि मोदी राज में इन प्रवृत्तियों को एक नयी ही ऊंचाई पर पहुंचा दिया गया है और राज्यपालों को विपक्षी सरकार के खिलाफ इस हद तक तथा इतनी नंगई से सत्ताधारी पार्टी के सक्रिय एजेंटों में तब्दील किया गया है, जैसा इससे पहले कभी नहीं हुआ था।

    इस खेल की नंगई को समझने के लिए एक तथ्य की ओर ध्यान दिलाना ही काफी होगा। तमिलनाडु विधानसभा के जिन विधेयकों को राज्यपाल रवि ने अनंतकाल तक रोके रखने की कोशिश की थी और जिन्हें अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश से कानून बना दिया गया गया है, उनमें उच्च शिक्षा क्षेत्र से संबंधित विधेयक भी शामिल हैं, जो राज्य विश्वविद्यालयों के चांसलर का पद राज्यपाल से लेकर, निर्वाचित सरकार को सौंपने का प्रयास करते हैं। मोदी राज में संघ-भाजपा द्वारा राज्यपालों को माध्यम बनाकर, जिस तरह राज्य विश्वविद्यालयों पर ही कब्जा करने का अभियान छेड़ा गया है, उसके सामने तमिलनाडु ही नहीं केरल, पश्चिम बंगाल आदि अन्य अनेक विपक्ष-शासित राज्यों को भी, राज्यपाल को पदेन चांसलर के पद से हटाने का रास्ता अपनाना पड़ा है। लेकिन, मोदी राज द्वारा बैठाए गए राज्यपाल, इसके सीधे उनके अपने हितों से जुड़ा मामला होने के बावजूद, विधानसभाओं द्वारा पारित इन विधेयकों को भी दबा कर बैठे रहे हैं।

    बेशक, विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों का रोक कर रखा जाना, विपक्षी सरकारों के खिलाफ राज्यपाल के पद के दुरुपयोग का एकमात्र हथियार नहीं है। लेकिन, यह संघीय व्यवस्था की जड़ पर ही प्रहार करने वाला ऐसा अतिवादी हथियार जरूर है, जिसकी असंवैधानिकता सुप्रीम कोर्ट की छन्नी से बचकर नहीं निकल पायी है। इससे मौजूदा शासन की बढ़ती संघवादविरोधी प्रवृत्ति पर कुछ अंकुश लगने की उम्मीद तो की ही जा सकती है। पर यह अंकुश उसी हद तक काम करेगा, जिस हद तक विपक्षी ताकतें सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले के संघवाद तथा जनतंत्र के लिए महत्व को, आम जनता के बीच ले जाने में कामयाब होंगी।
    (लेखक साप्ताहिक पत्रिका लोक लहर के संपादक हैं।)

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